नारी की रचना सुघर, विधि का अद्भुत यत्न ।
धन्य – धन्य धरती हुई, पाकर नारी रत्न ॥
नारी पर मोहित हुए, विधिनिर्मित सब लोक ।
नारी अद्भुत मोहिनी, हरती मन का शोक ॥
नारी – मन की भावना, कोमल कलिका कुंज ।
नर को देती है सदा, प्रीति – प्रेरणा – पुंज ॥
नारी नर की ऊर्ध्व -गति, लहे अधोगति सोई ।
ज्यों योगी तजि योग निज, अपयश भागि होइ ॥
नारी नर का प्राण है, नर नारी का प्राण ।
एक दूसरे के बिना, मिले न जग से त्राण ॥
नारी – मन की गाँठ को, खोल ना पाये ब्रह्म ।
कहाँ बापुरा ? मानुषा, क्षुद्र – बुद्धि मन छद्म ॥
रूप – राशि, भूषण रहित, नारी शोभा – हीन ।
ज्यों चंदा बिनु चाँदनी, औ’ पानी बिन मीन ॥
नारी भटके राह जब, नर का सत्यानाश ।
राह भटक जब नर चले, स्वयं सहे संत्रास ॥
अपमानित हो नारी जब, महासमर छिड़ जाइ ।
सगे कुटुम्बी जाति – जन, सब ही जात नसाइ ॥
जब नारी अपमान हो, वह कुलटा बन जाई ।
दो कुनबों की साख तब, मिट्टी में मिल जाइ ॥
बिनु नारि नर का नहीं, संसृति में अस्तित्व ।
नर बिनु नारी क्या रखे, अपना निजी प्रभुत्व ॥
नारी – सा आदर्श नहिं, नहिं नारी – सी टेक ।
जग – जननी जग – पालिनी, नारी रूप अनेक ॥
नारी – सम कोमल नहीं, नारी – सम न कठोर ।
मूरति ममता – त्याग की, कहि निर्द्वन्द्व’ बहोर ॥
नारी कोमल कल्पतरु, नारी कुलिश कठोर ।
करुणा की धारा ह्रदय, बहे बहोर बहोर ॥
जहाँ अर्चना नारी की, देवों का वहिं वास ।
धरती होवे स्वर्ग सम, मिटे सभी संत्रास ॥
नारी को अबला कहें, वे नर मूर्ख महान ।
नारी सम नहीं सबल कोउ, कहते वेद पुरान ॥
मारी को अबला समुझि, करते जो अपमान ।
ते नर इह परलोक में, पावें कष्ट महान ॥
नारी के सौंदर्य में, प्रकृति छटा के रंग ।
जो समझे इस भेद को, वही प्रकृति के संग ॥
नारी के सौन्दर्य बिनु, सारी सृष्टि कुरूप ।
नारी ही बस एक है, जग का सत्य स्वरूप ॥
नारी बिनु संसार में, प्रेम – पक्ष है रिक्त ।
बिना प्रेम के शून्य उर, जीवन होवे तिक्त ॥
नारी नर की प्रेरणा, नारी नर के प्राण ।
नारी बिनु संसार में, नर नहिं पावे त्राण ॥
नारी कुल की तारिणी, नारी कुल की आन ।
नारी दाता मोक्ष की, अद्भुत सत्य महान ॥
नारी पारस, लौह नर, इसमें संशय नाँय ।
नारी के स्पर्श से, नर कंचन बन जाए ॥
चतुरानन की चातुरी, नारी का निर्माण ।
सकल सृष्टि का सार ये, लौकिक सुघर सप्राण ॥
जग में जेती चातुरी, सब नारी मन माहिं ।
नारी – मन के भेद को, ब्रह्मा जाने नाहिं ॥
नारी की माया प्रबल, बाँध रखा संसार ।
नाच नचाये भाँति बहु, नर को अपरम्पार ॥
नारी में गुण षष्ठदश, नर में बारह जान ।
नारी नर से आगरी, माने जग – विद्वान ॥
वाम अंग धरि नारी को, भूतनाथ भगवान ।
अर्धनारीश्वर बन गये, करि नारी सम्मान ॥
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