पुत्री हो मात – पिता की,
भ्राता की बहन छबीली ।
प्रेमी को प्रेम सिखाती,
बन प्रेयसी अजब रसीली ॥
श्रंगारमयी यदि रमणी,
तो रण में तलवार उठाती ।
सब शत्रु साफ कर डालो,
शोणित की धार बहाती ॥
तुम तापमयी अग्नि सी,
शीतल जलधारा भी तुम हो ।
स्वाभिमान की स्वामिनी,
अनुभूत क्षमा भी तुम हो ॥
उच्छृंखलता – सागर तो,
गंभीर धरा भी तुम हो ।
विद्युत – सी चपल चंचला,
तो सरल धरातल तुम हो ॥
तुम परमशांति की पोषक,
तुम शांति धरा पर बोई ।
जग तुमको अबला कहता,
पर तुम – सा सबल न कोई ॥
जब चंडी – रूप धरो तुम,
तब धरती – अंबर काँपे ।
तुम शक्ति अपरिमित ऐसी,
सब देव – दनुज धरि चाँपे ॥
तुम सती – साध्वी नारी,
यदि बनकर हो दिखलाती ।
कुलटा भी बनकर लेकिन,
कुल – कलंक कहलाती ॥
खोटे कर्मों पर आतीं,
तो त्रिया – चरित्र दिखलाती ।
भूत – पिशाचिन, डाकिनि,
तुम सब कुछ ही बन जाती ॥
वह रूप भयंकर तेरा,
कुछ ऐसा खेल दिखाता ।
तेरा वह अद्भुत जादू,
इस जगह को है नचाता ॥
जग तुम से तौबा करता,
वह नील गगन झुक जाता ।
मानव तो केवल मानव,
वह ईश्वर भी घबराता ॥
लज्जा तेरा आभूषण,
पलकों का पर्दा डाले ।
तेरे नयनों का पानी,
पत्थर को मोम बना दे ॥
तेरा उर कोमल कलिका,
करुणा का उमड़े सागर ।
यदि ममता से भीगा तो,
बनता अमृत की गागर ॥
वह शक्ति अलौकिक तेरी,
जिसको वेदों ने गाया ।
वह मिलती तुम्हें कहां से,
ईश्वर भी भेद ना पाया ॥
तुम अति रहस्य मय नारी,
अवतरी धरा पर आकर ।
यह धरती धन्य हुई है,
तुम – समान निधि पाकर ॥
जो एक बार हठ ठानो,
तो उसको पूरा करती ।
शशि – सूर्य बदल दें राहें,
तुम अटल – अडिग ही रहती ॥
तुम जननी हो इस जगह की,
तुम जग का पालन करती ।
कल्याणमयी करुणा हो,
तुम जग की पीड़ा हरती ॥
माता का रूप तुम्हारा,
त्रिभुवन में पूजा जाता ।
है कोई प्राणी ऐसा,
जो तुम समान बन पाता ॥
नारी के ही प्रति नारी,
मानस में ईर्ष्या पाले ।
यह कैसी अजब पहेली,
जो उर अंतर को साले ॥
तुम नारी एक अकेली,
पर रूप तुम्हारे कितने ।
वह भूला स्वयं विधाता,
जो रूप बनाए जिसने ॥
मैं क्षुद्रबुद्धि का मानव,
किस भांति इन्हें गईं पाऊँ ।
बस देवी रूप समझकर,
मस्तक ‘निर्द्वन्द्व’ झुकाऊँ ॥