vajrapaat-shok

किंतु विधाता उनके सुख को,

सहन नहीं कर पाता था।

इसीलिए तो उसने अपना,

माया चक्र चलाया था ॥1॥

 

चला नियति का चक्कर ऐसा,

मादा पर विपदा मंडराई।

नर बैठा था नीड़ द्वार पर,

मादा निकल नीड़ से आयी ॥2॥

 

नर प्रसन्न हो चीं चीं बोला,

फिर बाहर को उड़ा आया।

छत से लटके पंखे से वह,

बड़े वेग से टकराया ॥3॥

 

कटे पंख निष्प्राण हुआ,

रक्त-सिक्त वह गिरा धरणी पर।

गौरैया ने देखा उसको,

चीखी तत्क्ष्ण चीं चीं कर ॥4॥

 

हाय! हुयी विधवा गौरैया,

कठिन वज्र था टूटा उस पर।

हो गई अनाथ घर उजड़ गया,

करती विलाप वह रह-रहकर ॥5॥

 

उसके सपने चूर हो गए,

बसा हुआ घर उजड़ गया।

उसका प्रियतम छोड़ बिलखती,

सीधा स्वर्ग सिधार गया ॥6॥

 

वह असह्य विपदा का बादल,

अकस्मात जो उस पर टूटा।

हर्ष विशाद बना पल में,

और भाग्य अभागी फ़ूटा ॥7॥

 

कभी देखती धरती पर वह,

निष्प्राण प्रिय जो पड़े हुये।

कभी नीड़ की ओर ताकती,

जिस्में स्वप्न अनाथ हुये ॥8॥

 

फिर करके दोनों नेत्र बन्द,

कर उठती थी चीत्कार।

बेहाल हुई जाती थी वह,

करती भीषण हाहाकार ॥9॥

 

नैनों से नीर बहाती थी,

जैसे सावन में लगे झड़ी।

कर विलाप बेहोश हुई,

और धरती पर आन पड़ी ॥10॥

 

यह भीषण दुर्घटना को,

मैं विमूड़ सा देख रहा था।

पल में क्या से क्या हो गया,

बसा हुआ घर उजड़ रहा था ॥11॥