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लाँघ किशोरावस्था जब,

तुम यौवन की दहलीज चढ़ो ।

भावी पति – परमेश्वर की,

मन में तुम तस्वीर गढ़ो ॥

 

राजकुँवर – सा होगा सुंदर,

उसका रूप अलौकिक होगा ।

उर मैं उमड़े सिंधु प्यार का,

सरल स्वभाव अति कोमल होगा ॥

 

निश्छल प्यार करेगा मुझको,

अपने उर में मुझे बिठाकर ।

अपना तन – मन करूँ निछावर,

पलकों में मैं उसे छिपाकर ॥

 

स्वर्णिम सपनों में खो जाती –

निज गृह स्वामिनी बन जाऊँगी ।

सास – ससुर की सेवा करके,

आशीष हृदय से पाऊँगी ॥

 

प्रियतम की मैं बनूँ प्रेयसी,

अतुल प्यार मैं पाऊँगी ।

ननदों से भी करूँ ठिठोली,

प्रतिपल उन्हें रिझाऊँगी ॥

 

प्रतिपल के सत्कर्मों से मैं,

कुल का मान बढ़ाऊँगी ।

मधुबनी से जीत हृदय को,

संतोष स्वयं भी पाऊँगी ॥

 

दुलहिन बन कर डोली चढ़ती,

उर उमंग में भर जाता ।

पूरी होती मनः – साधना,

पी से जुड़ता जीवन – नाता ॥

 

माता – पिता से मिलती शिक्षा –

सबसे नेह बढ़ाना तुम ।

सास – ससुर की सेवा करके,

सेवा – धर्म निभाना तुम ॥

 

हुआ आज से पति – गृह तेरा,

और बना पति परमेश्वर ।

उसकी आज्ञा – पालन करना,

धर्म तुम्हारा सबसे ऊपर ॥

 

मान और मर्यादा रखकर,

सबसे उत्तम चरित्र निभाना ।

गुरुजनों का आदर करना,

छोटों पर स्नेह लुटाना ॥

 

नेह के बंधन माता – पिता के,

पल में टूट बिखर जाते हैं ।

रोते भाई – बहन बिलखकर,

परिजन – सखी बिछुड़ जाते हैं ॥

 

हर्ष – विषादयुक्त निज उर में,

लेकर आशा पिया – मिलन की ।

करो पदार्पण ससुर – गेह में,

सहमी – सहमी डरी हिरन – सी ॥

 

सास – ननद अत्योत्साह से,

करतीं स्वागत दिव्य आरती ।

मंगल गान करें पुरवासिनी,

भर उमंग में तुम्हें रिझाती ॥

 

मान – मनोबल और रिझावन,

कुछ दिन का है मेला होता ।

तभी सास के तेवर बदले,

असली रूप उजागर होता ॥

 

और तुम्हारे स्वर्णिम सपने,

पल में चूर – चूर हो जाते ।

रूप – रंग – गुण – धर्म तुम्हारे,

क्षण में सब अवगुण बन जाते ॥

 

सास – दृष्टि में बनो कुलच्छिन,

पहले तुम ही सुलच्छिन थीं ।

और दरिद्रता बन जाती हो,

आईं जो गृह – लक्ष्मी थीं ॥

 

होती भस्म भावना कोमल,

नित्य सास के कोपालन में ।

दण्ड, प्रताड़ना सहती रहती,

व्यंग – बाण भी पल – पल में ॥

 

हर काम तुम्हारा खोटा दीखे,

तुम्हें बताती फूहड़ सास।

करके नित्य शिकायत पति से,

तुमको दिलवाती संत्रास ॥

 

सुख – दुख की कुछ बातें जब,

तुम करना चाहो प्रियतम से ।

किन्तु ना अवसर मिल पाता,

कुछ कहने – सुनने प्रियतम से ॥

 

जिस पर तेरा जीवन निर्भर,

करती जिस पर प्राण निछावर ।

जिससे जुड़ा प्रीति का नाता,

रहता वह भी आँख चुराकर ॥

 

अल्पकाल में पुत्र न जन्मा,

घोर मुसीबत आ जाती ।

सास और पति – परमेश्वर से,

बाँझ की पदवी पा जाती ॥

 

अत्याचार सास के बढ़ते,

लेकिन तुम सब सहती हो ।

मौन साधना करती रहती,

मुख से कभी ना कहती हो ॥

 

बहु – रूप में तुमको कितने,

सहने पड़ते कष्ट अपार ।

अपमानित हो जीवन जीती,

सहनशीलता अपरम्पार ॥

 

कभी कहीं तुम ऐसी चंचल,

बनकर बहु दिखा देती ।

सास – कर्कशा को कर बाहर,

पति को नाच नचा देती ॥

 

सास – ननंद से सेवित प्रतिपल,

ससुर स्वयं पानी भरते ।

घर – बाहर के काम – काज सब,

पति – परमेश्वर पूरा करते ॥