जब बीते बचपन तेरा,
अद्भुत परिवर्तन होता ।
कन्या से बनो किशोरी,
तुमको आभास ना होता ॥
तब बचपन की चंचलता,
दूर कहीं खो जाती ।
लेकिन स्मृति के पट पर,
कुछ याद शेष रह जाती ॥
गुड़ियों का खेल तुम्हारा,
यों अनायास ही रूकता ।
गुड़ियां पड़ी कहीं पर,
गुड्डा भी नहीं सुबकता ॥
यह देख तुम्हारे मन में,
कष्टों का नर्तन होता ।
लेकिन कुछ धीरे-धीरे,
उर में परिवर्तन होता ॥
जब माता के कामों में,
तुम अपना हाथ बटाती ।
हृदय प्रफुल्लित होता,
मां मन-ही-मन हर्षाती ॥
सब छोटे भाई-बहनें,
जब तुमको मुखिया चुनते ।
वे अपने मन की बातें,
तेरे कानों में कहते ॥
तुम सबकी बातें सुनकर,
अपने मन में हो गुनती ।
तब अपना नेह लुटाकर,
उनके दुःखों को हरती ॥
गंभीर भावना तेरे,
जब उर में लगे पनपने ।
यौवन की सीढ़ी पर तब,
आगे लगो सरकने ॥