सौंदर्यमयी तुम बाला,

कैशोर्य अवस्था लाँघी ।

तब रूप निरखता अनुपम,

योवन की आती आँधी ॥

 

स्वर्ग-परी-सी बनकर,

बरबस आकर्षित करती ।

रमणी का रूप सजा कर,

पौरुष को विचलित करती ॥

 

तुम बनी मेनका, रंभा,

देवों को मोहित करती ।

मानव तो मानव होता,

ऋषियों को विचलित करती ॥

 

यौवन का ज्वार उमड़ता,

मुखड़े पर लाली आती ।

तब अंग-अंग में तेरे,

मादक सुगंध भर जाती ॥

 

मादकता तेरे तन की,

नयनों में लगे छलकने ।

जो कोई तुमको देखे,

वह लगता राह भटकने ॥

 

जब कोमल-कमल-कली से,

लगता मधु पराग झरने ।

मधु-लोलुप भँवरा आतुर,

कलिका में बंदी बनने ॥

 

रूप तेरे का लोभी,

मानव-मन भँवरा बनता ।

नयनों की हाला पीने,

मदहोश बना वह फिरता ॥

 

गंभीर प्रकृति हो जाती,

चंचल मन लगे भटकने ।

लेकिन मर्यादा जग की,

आकर लगे हटकने ॥

 

फिर भी अभिसार करो तुम,

प्रिय से एकाकी मिलती ।

स्वर्णिम स्वप्न सजाकर,

कुछ खोई-खोई रहती ॥

 

जब परिणय – अंकुर फूटे,

तेरे मनके उपवन में ।

सम्पूर्ण समर्पण करने,

की इच्छा उपजे मन में ॥

 

तब लाज तुम्हारे मन की,

मर्यादा याद कराती ।

और कलंकित होने,

से तुमको वही बचाती ॥