माँ की ममता अमर है,
अविकल उसका नेह ।
मन, वाणी और कर्म से,
बरसे करुणा मेह ॥
माता की पदवी पाकर,
शुभ सौम्य मूर्ति बन जाती ।
उर-अंतर का तुम सारा,
सागर – नेह लुटाती ॥
तुम अगणित कष्ट उठाकर,
सन्तति का पालन करती ।
बच्चों को देख किलकता,
मन फूली नहीं समाती ॥
संतति के चेहरे पर जब,
देखो-विषाद है अंकित ।
तो कोमल हृदय तुम्हारा,
हो जाता है आतंकित ॥
मुखड़े पर दुख के बादल,
यों आकर घिरने लगते ।
ममता के मोती बनकर,
नयनों से झरने लगते ॥
जब तक वे स्वस्थ ना होते,
तुमको ना शांति मिल पाती ।
दिन-रात घुलो चिंता में,
बेचैन बहुत हो जाती ॥
व्यथा – अग्नि दुख-दायक,
करती विदग्ध उर-अंतर ।
निशि-वासर बहता रहता,
नयनों से नीर निरंतर ॥
उर में जो करुणा बस्ती,
निर्बल – अवलंबन बनती ।
माँ की जो ममता उर मैं,
निज निछावर करती ॥
शिशु अबोध नन्हा – सा,
जब करता गीला बिस्तर ।
तुम खुद गीले में सोती,
सूखे में उसे सुलाकर ॥
जब शिशु को नींद न आती,
तो लोरी मधुर सुनातीं ।
“ओ चंदा मामा आजा,”
तारों को पास बुलाती ॥
“तुम सब धरती पर आकर,
खेलो और खिलाओ ।
यह मम नयनों का तारा,
इसका मन बहलाओ ॥”
तुम कहतीं निंदिया रानी,
जल्दी से आ जाओ ।
मम हृदय-दुलारा कहता –
“आकर मुझे सुलाओ ॥”
फिर सिर पर हाथ फिराकर,
बालों को सहलाती ।
नयनों में निंदिया आकर,
शिशु – अधरों पर मुस्काती ॥
लोरी
आ जा री निंदिया, तोहि ललना पुकारे ।
अंखियों में आ जा, मीठा सपना दिखा रे ॥
सुअना है प्यारा दुलारा हमारा ।
भोला है कितना ये आंखों का तारा ॥
सो गई धरतिया, सब सो गए सितारे ।
आ जा री निंदिया, तोहि ललना पुकारे ॥
सपनों में आए तेरे परियों की रानी ।
तुम को सुनाए वो राजा की कहानी ॥
जल्दी तू सो जा, मां की ममता दुलारे ।
आ जा री निंदिया, तोहि ललना पुकारे ॥
तात घर आयें, तो हाथी – घोड़ा लायें ।
सोने के हाथी पै, सुअना बिठायें ॥
पलकों में नींद आये, नयनों के दुलारे ।
आ जा री निंदिया, तोहि ललना पुकारे ॥
मस्तक पर चुंबन लेकर,
तुम स्नेह लुटाती ।
अब सुख से सुत सोएगा,
कह चादर एक उढ़ातीं ॥
तब शेष काम निबटाकर,
बिस्तर पर तुम सो जाती ।
धीरे से अंक छिपाकर,
शिशु के संग सो जाती ॥
सोने का एक बहाना,
पर नींद कहां नयनों में ।
शिशु जाग न जाए डरकर,
जो खोया है सपनों में ॥
सोता शिशु लगता हंसने,
तो कितना प्यारा लगता ।
आनंद अलौकिक पाकर,
तब तेरा हृदय उमड़ता ॥
किंचित भी हिले डुले तो,
तुम चौंक – चौंक उठ जाती ।
तुम शिशु को देखो सोता,
संतोष तभी कुछ पाती ॥
जब बच्चा रूठे तुम से,
तब उसको बैठ मनाती ।
जब माने नहीं मनाये,
तब विकल बहुत हो जाती ॥
कुछ देर ठहर कर फिर से,
लगती हो उसे मनाने ।
राजा – रानी की गाथा,
तब लगती उसे सुनाने ॥
यदि करे ढीठता भारी,
तो छोड़ अलग हो जातीं ।
पर ममता कभी ना रूठे,
फिर पास उसी के आतीं ॥
कुछ मधुर प्रलोभन देकर,
शिशु को तुम हो बहलाती ।
है अवीचल तेरी ममता,
जो बच्चे को मनवाती ॥
शिशु रोता और मचलता,
तो करुणा रुदन मचाती ।
आंचल में उसे छिपाकर,
तुम अपना दूध पिलाती ॥
गालों पर चुंबन देकर,
तुम थपकाती दुलरातीं ।
हाथों में उसे उठाकर,
झूला भी उसे झुलातीं ॥
मधुर – मधुर बातें कर,
तुम बार – बार बहलाती ।
यह तेरी अविकल ममता,
जो उसे शांत कराती ॥
तुम कहती लाल दुलारा,
है सारे जग से न्यारा ।
राजा है, राजकुँवर है,
है सबसे सुंदर, प्यारा ॥
जो ममता को पहचाने,
वह केवल तेरा उर है ।
जो ममता – रस बरसाए,
वह केवल तेरा उर है ॥
ममता का मोल जो जाने,
वह केवल तेरा उर है ।
ममता का अगाध सागर,
वह केवल तेरा उर है ॥
जब तक बड़ा ना होता,
नन्हा शिशु राज – दुलारा ।
आँचल में रखो छिपाकर,
अपनी आंखों का तारा ॥
सर्व – सुरक्षित घर है,
तेरे आंचल का साया ।
कहीं ना जो सुख मिलता,
तेरी गोद में पाया ॥
करती सन्तति का पालन,
प्रति-पल कष्ट उठाकर ।
बच्चों में खोई रहती,
तुम सारे कष्ट भुलाकर ॥
बच्चों के देख उपद्रव,
तुम कभी ना क्रोध दिखाती ।
तुम देखो उनके करतब,
मन – ही – मन हर्षाती ॥
सुत जघन्य अपराधी,
जब तेरे सम्मुख आता ।
तो उर से दौड़ लगाती,
वह सदा अभय हो जाता ॥
अपराध करे यदि बेटा,
जब तुम्हें शिकायत आती ।
तुम लेकिन अपने मन में,
किंचित विश्वास ना लाती ॥
जननी ही पहला गुरु है,
जो पहला पाठ पढ़ाती ।
बच्चा जो बोली सीखे,
वह मातृ भाषा कहलाती ॥
माता ही सिखलाती है,
बोली, भाषा औ’ वाणी ।
चलना – फिरना भी मां से,
सीखे धरती का प्राणी ॥
उर विशाल अति तेरा,
जिसमें अपार है ममता ।
कौन भला कर पाये,
इस जग में उसकी समता ॥
आशीष मिले जो तेरा,
वह कभी न निष्फल जाता ।
उसकी है अपार महिमा,
जीवन समृद्ध बनाता ॥
तुम वीर – प्रसूता माता,
सन्तति को निडर बनाती ।
मातृभूमि – रक्षा में,
मर – मिटना तुम्हीं सिखाती ॥
गद्दार पुत्र हो कायर,
दुश्मन को पीट दिखाये ।
मन तेरा धिक् – धिक् करता,
बेटे को दंड दिलाये ॥
तुम अन्नपूर्णा देवी,
अग – जग का पालन करती ।
तेरे पवित्र आँचल से,
अमृत – पय – धार सरसती ॥
सर्वस्व निछावर करके,
पाने की चाह न करतीं ।
सन्तति सदा सुखी हो –
उर यही कामना करतीं ॥
सन्तति पर दींखे संकट,
तुम लड़ने को उद्यत होतीं ।
संतति के प्राण बचाने,
निज प्राणों की आहुति देतीं ॥
ये धरती मूक अचल है,
सागर में खारा जल है ।
तेरे आँचल से बहता,
पय – धारा – मधु पल – पल है ॥
मां को उपमेय बनाये,
ना जग में कोई उपमा ।
यदि उपमा भी है कोई,
तो माँ ही अपनी उपमा ॥
वह हृदय कौन – सा, किसका,
जो माँ की पीड़ा समझे ।
वह हृदय तुम्हारा अपना,
जो प्रसव – वेदना समझे ॥
पूर्ण विकास नारी का,
नारीत्व नहीं दे पाता ।
नारीत्व प्रसव से मिलता,
तब माँ का रूप कहाता ॥
उन्नत विकास नारी का,
जो रूप – मात्र वह माँ है ।
जो गौरव दे नारी को,
वह गौरव केवल माँ है ॥