जब मन में हलचल होती,
मातृत्व – भावना जगती ।
तब नर की पत्नी बनकर,
सम्पूर्ण समर्पण करती ॥
निज तन – मन कर न्योछावर,
तुम सपनों में खो जाती ।
निज मन – वाणी – कर्मों से,
पति में विलीन हो जाती ॥
पति की अर्धांगिनी बनकर,
पत्नी का भार उठाती ।
धरती पर अपने घर को,
सुंदरतम स्वर्ग बनाती ॥
पति सेवा में रत रहकर,
निषि-वासर हर्षित रहती ।
तुम अपनी उपमा खुद हो,
तुम जगकी उपमा गहती ॥
पतिव्रत का गुण अद्भुत,
जो तेरे उर में पलता ।
यमराज, मृत्यु भी इस से,
भयभीत नित्य ही रहता ॥
तुम पति को मार्ग दिखाती,
पति की अर्धांगिनी बनकर ।
तुम उसके पीछे रहती,
उसके ही आगे रहकर ॥
पति के प्रति प्रेम अपरिमित,
पति को परमेश्वर कहती ।
पति की ही छाया बनकर,
उसके ही पीछे रहती ॥
तेरे सतीत्व की महिमा,
यह सारा ही जग गाता ।
देव – मनुज – दानव क्या,
है अम्बर तक झुक जाता ॥
तुम सच्ची गृहणी बनकर,
अपने नित फर्ज निभाती ।
परिवार – जनों को सुख दे,
गृह – लक्ष्मी कहलाती ॥
पति – सेवा में रत रहकर,
नित पति की सेवा करती ।
हो पति को कष्ट न किंचित्,
तुम सदा ध्यान यह धरती ॥
पति से अधिकार ना मांगो,
सच्ची अधिकारिनी होकर ।
कर्तव्यलीन नित रहती,
पति के अधीन ही रहकर ॥
पति-प्रेम तुम्हारा निश्छल,
प्रतिदान कदापि न चाहो ।
नित देना ही बस सीखा,
कुछ लेना कभी ना चाहो ॥
पति का उदास चेहरा,
लख स्वयं सामने आती ।
अधरों पर हंसी खिलाकर,
पति-मन की कली खिलाती ॥
धीरे से पूछो पति से –
‘प्रिय ! हो उदास किस कारण ।’
मधुर – मधुर वाणी से,
करती हो कष्ट निवारण ॥
मनोभाव पढ़ लेतीं,
क्या पति के अंतर्मन में ?
यह शक्ति तुम्हारी अद्भुत,
रखी छिपाकर मन में ॥
दारुण दुख निज मानस का,
पति से सदा छिपाती ।
प्रतिपल मुस्काती रहकर,
पति को भी सदा हँसाती ॥
अगणित त्रुटियाँ हो पति की,
तुम उन पर ध्यान ना लाती ।
सोलह श्रृंगार सजाकर,
पति को भरपूर रझाती ॥
मर्यादा की वह रेखा,
जो स्वयं तुम्हीं ने खींची ।
प्राणों की आहुति देकर,
भी हरदम तुमने सींची ॥