तुम सेवक हो जग – जग की,
सेवा का भाव सिखाती ।
अपना अस्तित्व मिटाकर,
दीनों पर दया दिखाती ॥
अस्पताल, घर – बाहर,
सेवा में लीन रहो तुम ।
दुखियों की आह सुनो जब,
दु:ख हरने दौड़ पड़ो तुम ॥
अस्पताल में रोगी,
जब दुख में आहें भरता ।
नेह तुम्हारा निश्चछल,
तब उसकी पीड़ा हरता ॥
जब उड़ता यान हवा में,
अंबर से बातें करता ।
परिचारिका रूप तुम्हारा,
हँस – हँस कर सेवा करता ॥
निज सास – ससुर की सेवा,
तुम सच्चे मन से करती ।
आशीष ढेर सा पाकर,
प्रतिपल गुलाब – सी खिलती ॥
पर – सेवा – धर्म तुम्हारा,
तल्लीन उसी में रहतीं ।
औरों को सुखी बना कर,
संतोष हृदय में करती ॥
निज सेवा धर्म निभा कर,
जितना तुम पुण्य कमाती ।
उतने के नहीं बराबर,
इस जग में कोई थाती ॥
जो सेवा करना जाने,
वह नारी सेविका तुम हो ।
सेवामय रूप किसी का,
वह सेवा रूप तुम ही हो ॥
सेवा की अनुपम थाती,
रखती हो तुम्हीं सुरक्षित ।
अनमोल तुम्हारा जीवन,
पर – सेवा हेतु समर्पित ॥